सकोला पंचायत: जहां विकास योजनाएं घोटालों की खुराक बन चुकी हैं — शासन देख रहा तमाशा, गांव घुट रहा भ्रष्टाचार में

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रिपोर्ट: संतोष चौरसिया

सकोला अनूपपुर
अगर कोई पंचायत यह साबित करती है कि कैसे शासकीय योजनाएं आमजन के भले के लिए नहीं, बल्कि अफसरशाही और स्थानीय कर्मचारियों की जेब भरने के लिए चलाई जाती हैं — तो वह है ग्राम पंचायत सकोला
यहां हर योजना के साथ घोटाले की गंध आती है विकास की आड़ में लूट का ऐसा घिनौना खेल चल रहा है,
जिसमें न ईमान बचा है न जवाबदेही शासन भले “सबका साथ, सबका विकास” का नारा लगाए, लेकिन सकोला में यह नारा बदल चुका है —
“चंद लोगों का साथ, खुद का विकास, बाकी गांव को बर्बादी की सौगात”
यह पंचायत अब योजनाओं की नहीं, घोटालों की प्रयोगशाला बन गई है टूटी सड़कें, अधूरे तालाब, और सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज झूठे काम — यही हैं यहां की पहचान और हैरानी की बात यह नहीं कि ये सब हो रहा है — हैरानी यह है कि सब कुछ जानते हुए भी शासन-प्रशासन आंखें मूंदे बैठा है

मनरेगा में मजदूरी दर 261 रुपये – और साकोला में 120! यह कैसा विकास, यह कैसा न्याय?

सरकार ने ढोल-नगाड़े बजाकर ऐलान किया कि अब मनरेगा मजदूरों को 261 रुपये प्रतिदिन मिलेंगे लेकिन ज़रा साकोला पंचायत की सच्चाई देखिए – यहां गरीब मज़दूर को वही पुराना अपमानजनक 120 रुपये पकड़ाया जा रहा है और ये सब हो रहा है, उप यंत्री श्रीवास्तव और रोजगार सहायक रमेश विश्वकर्मा की खुली शह पर दोनों जनाब जैसे मजदूरों के भाग्यविधाता बन बैठे हों – “काम लो पूरा, पैसा दो अधूरा” की तर्ज पर दिन-दिन भर खटवा कर बंधुआ मजदूरों से भी बुरा सलूक किया जा रहा है
सरकार कहती है एक परिवार को 100 दिन का रोजगार – लेकिन 120 रुपये रोज़ मिले तो कुल 12,000 रुपये साल भर के! यानी महीने का 1000 रुपये — आज के महंगाई के ज़माने में ये रकम तो शायद शहरों में भीख मांगने वालों को भी कम लगती होगी महीने की गैस सिलेंडर बस आएगी मगर अफसरशाही मौन है, क्योंकि उनकी जेबें तो तय सैलरी से गर्म हैं
अगर 261 रुपये मजदूरी घोषित हुई है तो मजदूर को कम से कम 250 मिलना चाहिए – वरना इसे मनरेगा नहीं, “मज़दूर ठगवा योजना” कहा जाए! अब समय आ गया है जब जनता सवाल पूछे और साकोला के इस भ्रष्ट तंत्र से जवाब मांगे

साकोला की सड़क पर बिछा भ्रष्टाचार — जनपद और पंचायत की मिलीभगत का खेल

सकोला पंचायत की देवी चौरा से भूतही तालाब तक बनने वाली पीसीसी सड़क का अनुमानित खर्च 4,97,000 रुपये था लेकिन इस योजना को भी अफसरों ने लूट की दुकान बना दिया महज़ 30,000 रुपये की सामग्री के परिवहन के नाम पर 1,40,000 रुपये एक नरेंद्र नामक व्यक्ति के खाते में डाल दिए गए सवाल है — क्या यह माल चांद से लाया गया था? इस गड़बड़ी पर उपयंत्री श्रीवास्तव की चुप्पी नहीं, बल्कि उनकी भागीदारी दिखती है क्या उनकी आँखें इतनी कमजोर हैं कि 30,000 का सामान लाने में 1.4 लाख जायज़ लगने लगा? और रोजगार सहायक रमेश विश्वकर्मा ने तो भ्रष्टाचार को खुलेआम अंजाम दिया — 30,000 की सामग्री के काम पर 32,000 रुपये का लेबर भुगतान कर दिया और शान से कहा “काम पूरा हो गया!” वास्तव में सकोला अब पंचायत नहीं, भ्रष्टाचार की प्रयोगशाला बन चुका है इस घोटाले को प्रशासनिक समर्थन का प्रमाणपत्र दे रही है यह अब सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि संगठित लूट है — और इसका हर जिम्मेदार पात्र कठघरे में होना चाहिए

प्रशासनिक चुप्पी: संरक्षण या सहमति?

पंचायतों में योजनाएं कागज़ों पर पूरी हो रही हैं, और ज़मीन पर सिर्फ लूट का बोलबाला है लेकिन हैरानी की बात यह नहीं कि भ्रष्टाचार हो रहा है — हैरानी इस बात की है कि जनपद सीईओ, मनरेगा एपीओ, पंचायत एसडीओ और जिला प्रशासन सब कुछ जानते हुए भी मौन व्रत में बैठे हैं

ना जांच, ना निलंबन, ना जवाबदेही क्या ये चुप्पी सिर्फ लापरवाही है? नहीं — यह तो संरक्षण की मोहर है सत्ता की गोद में बैठा एक ऐसा तंत्र जहां भ्रष्टाचार को सिर्फ सहन ही नहीं संरक्षित किया जा रहा है

अगर आप कार्रवाई नहीं कर सकते, तो पद छोड़ दीजिए!
जनता अपने खून-पसीने से आपको तनख्वाह देती है — तमाशा देखने के लिए नहीं, न्याय के लिए यह लोकतंत्र है, लूटतंत्र मत बनाइए

जनपद सीईओ की निष्क्रियता अब लापरवाही नहीं, साझेदार होने का संकेत है मनरेगा एपीओ अपनी जिम्मेदारी भूल बैठे हैं — जैसे मजदूरों के हक नहीं, दलालों की डोर पकड़ी हो जनपद पंचायत एसडीओ (अस्सिटेंट इंजीनियर )की चुप्पी अब निष्पक्षता नहीं, पक्षपात बन गई है और जिला प्रशासन की नींद जैसे भ्रष्टाचार की ढाल बन गई हो

जब हर जिम्मेदार अफसर कुर्सी से चिपका रहे और योजनाओं के नाम पर लाखों की बंदरबांट हो — तो ये लोकतंत्र नहीं, बेईमानी का महोत्सव बन जाता है

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