अनुपपुर जिले के चोड़ी घाट-कुदरा जंगल क्षेत्र में अब हर दिन कोई न कोई ट्रैक्टर रेत से लदा हुआ निकलता है, जैसे यह इलाका रेत माफियाओं के लिए आरक्षित घोषित हो गया हो दिन के उजाले में, दर्जनों ट्रैक्टर अवैध खनन कर नदियों की छाती चीरते हैं और प्रशासन — विशेष रूप से वन विभाग और — बस देखती रह जाती है, मानो उनकी आंखों पर व्यवस्था की नहीं, मिलीभगत की पट्टी बंधी हो


यह इलाका कोतमा वन परिक्षेत्र में आता है, जहां नियमों की चौखट सिर्फ कागज़ों में मजबूत है ज़मीनी हकीकत यह है कि बीट गार्ड राकेश समुद्री की तैनाती वाले क्षेत्र में वन नियमों का सरेआम मखौल उड़ रहा है मगर विभाग सिर्फ जीपीआरएस की रिपोर्ट में उलझा है रेंजर हरीश तिवारी का कहना है कि “रेत खनन जहां हो रहा है, वह फॉरेस्ट नहीं, राजस्व भूमि है यानी विभाग अब यह तय करने में व्यस्त है कि लूट कहां की जा रही है, बजाय इसे रोकने के
लेकिन सवाल यह है कि क्या वन विभाग का दायित्व सिर्फ जंगल की सीमा पर खत्म हो जाता है? क्या पर्यावरण की रक्षा केवल ‘सरकारी नक्शों’ पर निर्भर होनी चाहिए? और क्या रेत खनन का प्रभाव सिर्फ उस ज़मीन पर होता है जो विभाग की है?
असल सच्चाई यह है कि इस इलाके में पर्यावरणीय त्रासदी की शुरुआत हो चुकी है नदियों के किनारे कटने लगे हैं, जलस्तर गिरने लगा है, और उपजाऊ ज़मीन बंजर में बदल रही है यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि सरकारी चुप्पी से पनपा ‘आपराधिक विकास’ है, जिसमें हर ट्रैक्टर के साथ सिस्टम का एक हिस्सा लुटता जा रहा है
और पुलिस? उसकी भूमिका तो और भी निराशाजनक है जहां रेत से भरे ट्रैक्टर पूरे गांव से होकर गुजरते हैं, वहां पुलिस की गश्त नदारद है ना कोई रोक, ना कोई जब्ती, ना कोई कार्रवाई ग्रामीणों ने जब-जब आवाज़ उठाई, उन्हें धमकियों का सामना करना पड़ा लेकिन पुलिस न तो सुरक्षा देती है, न हिम्मत अब सवाल उठता है — क्या भालूमाड़ा थाने की सीमा इस क्षेत्र को नहीं छूती? या फिर वहां भी जीपीएस देखकर तय होता है कि कहां जाना है और कहां नहीं?
यह मामला सिर्फ वन विभाग की निष्क्रियता तक सीमित नहीं है — यह पुलिस प्रशासन की उदासीनता और जिम्मेदारी से भागने की प्रवृत्ति का भी परिचायक बन चुका है जब अवैध खनन खुलेआम हो रहा है, तो पुलिस की खामोशी क्या दर्शाती है? क्या वह माफियाओं से डरती है, या फिर कोई अंदरूनी “समझ” इस चुप्पी को मजबूती दे रही है?
चोड़ी घाट अब केवल एक अवैध खनन स्थल नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रमाण बन चुका है कि जब सरकारी मशीनरी सोती है, तो माफिया जागते हैं — और जब जनता सवाल करती है, तो अफसर केवल जवाबों के बहाने ढूंढते हैं
अगर अब भी शासन ने ठोस कदम नहीं उठाया, तो आने वाले वर्षों में यह इलाका नक्शे पर तो रहेगा, लेकिन नदियां सूख जाएंगी, जंगल उजड़ जाएंगे, और भरोसे की जगह खालीपन रह जाएगा
जब जंगल चुप, पुलिस मौन और प्रशासन गायब हो — तब लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार होती है