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साकोला पंचायत में खेत तालाब योजना बनी शर्म की मिसाल — किसान के नाम पर निकासी, जमीन पर सन्नाटा, अफसर मौन भागीदार

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✍ रिपोर्ट: संतोष चौरसिया

जनपद पंचायत अनूपपुर की ग्राम पंचायत साकोला में मनरेगा के अंतर्गत स्वीकृत खेत तालाब योजना, अब एक और सरकारी छलावे का उदाहरण बन गई है — जिसमें योजना तो कागजों में पूरी हो गई, पर ज़मीन पर किसान के हिस्से सिर्फ़ एक गड्ढा और भारी निराशा आई।

किसान गुलाब सिंह के नाम स्वीकृत इस योजना की लागत ₹4,09,523 थी, जिसमें से ₹2,35,000 की निकासी आज तक हो चुकी है।
लेकिन जो ‘तालाब’ बना है, वह मात्र 5×10 मीटर का एक अधूरा गड्ढा है — न तो उसमें पानी रुकेगा, न किसान की उम्मीद।

अब यह सवाल रह नहीं गया कि योजना अधूरी क्यों है। असल सवाल यह है कि जब योजना का भौतिक कार्य हुआ ही नहीं, तो भुगतान कैसे और क्यों हुआ?
और इसका जवाब सीधे तौर पर उन अधिकारियों की ओर जाता है, जिनका कर्तव्य था रोकना, पर उन्होंने आँखें मूंद लीं।

इस पूरे मामले की नींव में सबसे पहले हैं रोजगार सहायक रमेश विश्वकर्मा, जो योजना के क्रियान्वयन में ज़िम्मेदार थे। योजना का प्रस्ताव, मजदूरी का सत्यापन, मस्टर रोल की पुष्टि — सब कुछ उन्हीं की निगरानी में होता है। जब जमीन पर तालाब जैसा कुछ भी नहीं है, तब यह स्पष्ट है कि वे या तो लापरवाह थे, या इस प्रक्रिया में सहभागी।

इसके बाद आते हैं सब इंजीनियर लव श्रीवास्तव, जिनकी तकनीकी जांच पर पूरा भुगतान आधारित होता है। उन्होंने इस योजना को ‘चल रहा मानकर अपनी रिपोर्ट देते रहे और मूल्यांकन करते रहे जबकि निर्माण कार्ड चालू ही नहीं था जो न केवल गैरजिम्मेदाराना है, बल्कि तकनीकी धोखाधड़ी की परिधि में आती है। जब आप किसी किसान के नाम पर योजना को स्वीकृति देते हैं, तो आपकी ज़िम्मेदारी बनती है कि आप उसकी सच्चाई भी देखें। लेकिन यहां सच्चाई नहीं देखी गई — देखा गया तो सिर्फ भुगतान की हरी झंडी।

एसडीओ (अनुविभागीय अधिकारी) की भूमिका यहां और भी निराशाजनक है। एक अधिकारी जिसकी जिम्मेदारी निरीक्षण और अनुमोदन की होती है, उसने दस्तखत भर दिए — बिना यह सुनिश्चित किए कि योजना में वास्तव में कुछ हुआ भी है या नहीं। यह सिर्फ़ लापरवाही नहीं, यह प्रशासनिक सजगता की विफलता है।

अब आते हैं उस अधिकारी पर जो इस योजना के भुगतान को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाता है — सहायक कार्यक्रम अधिकारी
की भूमिका योजनाओं की तकनीकी व वित्तीय स्वीकृति, मस्टर रोल जांच, और मास्टर जनरेट करने की होती है।
इस योजना में APO ने कार्य अधूरा होने के बावजूद भुगतान की प्रक्रिया आगे बढ़ाई, मास्टर जनरेट किया, और कोई आपत्ति नहीं उठाई। इसका मतलब साफ है: या तो APO ने ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ा, या फिर वह इस लापरवाही में मौन सहमति से शामिल था। दोनों ही स्थितियों में वह इस गड़बड़ी का अहम भागीदार है।

और अंततः, उस व्यक्ति की बात करें, जिसकी नाक के नीचे यह पूरा खेल चल रहा है — मुख्य कार्यपालन अधिकारी (CEO)।
जब एक अधिकारी सब जानकर भी चुप है, जब ज़मीन पर कुछ नहीं है और पैसे निकल चुके हैं, जब सवाल उठ चुके हैं लेकिन कोई जांच शुरू नहीं होती — तब यह चुप्पी सिर्फ़ चुप्पी नहीं, सहमति की भाषा बन जाती है।

जब शासन के सबसे ऊँचे पद पर बैठा अधिकारी मौन हो जाए, तो यह मान लेना चाहिए कि भ्रष्टाचार अब व्यक्तिगत दोष नहीं, संस्थागत सुविधा बन चुका है।

गुलाब सिंह के खेत में तालाब नहीं बना, लेकिन इस योजना ने प्रशासनिक व्यवस्था का असली चेहरा जरूर दिखा दिया — जहां योजनाएं चंद लोगों की धन उगाही की स्कीम बन चुकी हैं, और किसानों की ज़रूरतें कागज़ के बोझ तले दम तोड़ रही हैं।

सरकारें गंगा जल संवर्धन, जल संरक्षण और सिंचाई सुधार जैसी बातों से अपनी छवि बनाती हैं — लेकिन जब ज़मीनी अफसर उन योजनाओं को मिट्टी में मिला दें, और शीर्ष अधिकारी उस पर पर्दा डाल दें, तब यह साफ हो जाता है कि योजनाओं का अस्तित्व केवल दस्तावेज़ों और बजट में बचा है।

यदि इस मामले में अब भी कोई कार्रवाई नहीं होती, तो यह प्रशासन के लिए नहीं, जनता के धैर्य के लिए अंतिम चेतावनी होगी।

क्योंकि जनता के टैक्स से तनख्वाह लेने वाले ये अफसर, जब ज़मीन पर काम छोड़कर कागज़ पर घोटाले करने लगें,
तो यह सिर्फ़ भ्रष्टाचार नहीं — जनता की मेहनत, विश्वास और अधिकार की सीधी लूट होती है।
और इस लूट पर चुप रहना अब अपराध से कम नहीं।

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