रिपोर्ट — संतोष चौरसिया


मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले की जनपद पंचायत अनूपपुर के अधीन ग्राम पंचायत सकोला में एक ऐसा प्रकरण सामने आया है, जिसने यह स्पष्ट कर दिया है कि जब योजनाओं की कमान लापरवाह और बेपरवाह अफसरों के हाथों में होती है, तब विकास की जगह धोखा, और जवाबदेही की जगह घोटाले फलते-फूलते हैं।
वर्ष 2022 में सकोला पंचायत में जल पुनर्भरण के नाम पर चेक डैम निर्माण की योजना पास की गई। योजना की तकनीकी स्वीकृति दी गई, ₹10 लाख की राशि 15वें वित्त आयोग के टाइड फंड से जारी की गई, और कुछ ही समय में ₹2,65,000 की राशि वाउचर के ज़रिए निकाल भी ली गई। लेकिन अगर आप सकोला की ज़मीन पर कदम रखें, तो आपको न कोई डैम मिलेगा, न कोई निर्माण का चिन्ह। वहाँ सिर्फ़ मिलेगा — एक अदृश्य डैम, जो अफसरों की आंखों की तरह अदृश्य है।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि यह ₹2,65,000 की निकाशी किसी निर्माण कार्य पर नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से फर्जीवाड़े के तहत निजी खर्चों में उड़ा दी गई प्रतीत होती है। जब ज़मीन पर काम ही नहीं हुआ, तो यह रकम आखिर कहाँ गई? क्या यह पैसा किसी इमर्जेंसी राहत में गया था या फिर किसी अफसर के घर की सजावट में? साफ है — यह निकाशी काग़ज़ों में योजना और ज़मीनी हकीकत में जेबें गर्म करने का खेल था।
इस पूरे मामले में जिन दो नामों पर उंगली उठ रही है, वे कोई और नहीं बल्कि सकोला पंचायत के वही पूर्व प्रभारी सचिव हैं, जो आज रोजगार सहायक के पद पर आसीन हैं। यानी जिन्होंने पहले योजना को स्वीकृति दिलवाई, अब वही उसके क्रियान्वयन की ‘रोजगार गारंटी’ बनकर बैठे हैं। यह कोई इत्तेफ़ाक नहीं — यह पूरी तरह से सुनियोजित सांठगांठ है, जिसमें एक ही व्यक्ति अलग-अलग पदों से सिस्टम का शोषण करता रहा है। और अफसोस की बात यह है कि जनपद और जिला स्तर के अफसर अब भी उन्हें संरक्षण देने में लगे हैं।
यह घोटाला यूँ ही नहीं हो गया। इसके पीछे एक बेजान, निष्क्रिय और पूरी तरह से अनुत्तरदायी प्रशासन की भूमिका है — और उस व्यवस्था के केंद्र में बैठते हैं जनपद पंचायत अनूपपुर के सीईओ और एसडीओ, जो कुर्सी पर ऐसे जमे हैं जैसे किसी पुरस्कार में मिले हों। विकास कार्यों पर निगरानी रखने, योजनाओं की पारदर्शिता सुनिश्चित करने और गड़बड़ियों पर तुरंत कार्रवाई करने की जिम्मेदारी जिनके कंधों पर होनी चाहिए थी, वे अफसर आज “मौन साधना” में लीन हैं।
क्या सीईओ जनपद पंचायत अनूपपुर का काम केवल वेतन लेना, वातानुकूलित कक्ष में बैठकर फाइलों पर दस्तखत करना और कैमरों के सामने खानापूर्ति कर मुस्कुराना भर है? क्या एसडीओ का पद महज़ एक शाही तमगा है, जिसे धारण कर फील्ड से आँखें मूँद लेना ही ‘कर्तव्य पालन’ है?
जब योजना का निर्माण हुआ ही नहीं, तो भुगतान की अनुमति कैसे दी गई? फर्जी माप पुस्तिका किसके आदेश से भरी गई? निकासी किसके निर्देश पर हुई? और अगर इन सवालों का जवाब नहीं है, तो फिर इन पदाधिकारियों का पद पर बने रहना एक तरह का प्रशासनिक अपराध है।
सवाल यह भी है कि जब मीडिया में, जनचर्चाओं में, और पंचायत स्तर पर यह मामला उजागर हो चुका है, तो अब तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई? क्यों नहीं उन कर्मचारियों और अधिकारियों पर निलंबन की तलवार चली? क्या सीईओ और एसडीओ इस पूरे मामले को ढँकने की कोशिश में लगे हैं? या फिर वो इस लूट की श्रृंखला के मूक साझेदार हैं?
कुर्सियों पर बैठना कोई सजावट नहीं होती, वह ज़िम्मेदारी का प्रतीक होती है। लेकिन जब कुर्सियाँ निकम्मों से भर जाएं, तो वो लोकतंत्र नहीं, लापरवाही का लोकतंत्र बन जाता है। अनूपपुर का प्रशासन आज उसी दलदल में धँसता दिख रहा है, जहाँ अफसरों की खामोशी भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी ताक़त बन चुकी है।
जनता अब यह नहीं पूछ रही कि निर्माण क्यों नहीं हुआ — अब वह यह पूछ रही है कि इन अफसरों को कुर्सी पर क्यों बैठा रखा है? जब सकोला पंचायत की ज़मीन पर एक ईंट भी नहीं लगी, तो इन अफसरों की कुर्सियों पर टिके रहने की क्या वैधानिकता बचती है? क्या ये पदाधिकारियों का कार्यालय है, या किसी मूकदर्शक सभा का मंच?
अब समय आ गया है कि इन अफसरों से कुर्सी छीनी जाए, जवाब माँगा जाए, और घोटालों पर पर्दा डालने वालों को खुद ही पर्दे से बाहर कर दिया जाए।
क्योंकि सरकार जनता की होती है — अफसरों की नहीं।